गज़ल को अगर दिल की आवाज कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि गजल लिखना एक कला तो है ही लेकिन इसके लिए लेखक का आशिक मिजाज होना भी जरुरी है। गजल का इतिहास ग़ज़ल कविता का एक प्रकार है जिसकी शुरुआत दसवीं शताब्दी में फ़ारसी कविता में हुई थी और बारहवीं शताब्दी में यह इस्लामी सल्तनतों और सूफ़ी संतों के साथ दक्षिण एशिया में आई। उर्दू ग़ज़लें भारत और पाकिस्तान में बहुत प्रचलित और लोकप्रिय है। ग़ज़ल का गणित ग़ज़ल में मतला, मक़्ता, रदीफ़, काफ़िया, बहर और वज़न आदि तत्व हाेते हैं। ग़ज़ल की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है और दो मिस्रों से मिलकर बनता शेर। पहले शेर को मतला कहा जाता है और आख़िरी शेर को मक़्ता जिसमें शायर का नाम छिपा होता है। हर मिस्रे के अंतिम शब्द एक जैसे सुनाई देते हैं जैसे मीर की ग़ज़ल का ये शेर देख तो दिल के जां से उठता है ये धुंआ सा कहां से उठता है. इसमें उठता है हर शेर के अंत में आएगा जिसे रदीफ़ कहते हैं और उससे पहले मिलते-जुलते शब्द आएँगे जैसे जां से उठता है, मकां से उठता है, जहां से उठता है. इसे काफ़िया कहते हैं. पहले शेर में ये दोनों मिलते जुलते होने चाहिए जबकि बाक़ी के शेरों की पहली पंक्ति में कुछ भी हो सकता है जबकि दूसरी पंक्ति में वह मिलता जुलता होना चाहिए।
ग़ज़ल एक लयबद्ध कविता है. हर शेर तबले की थाप पर पढ़ा जा सकता है इसलिए ज़रूरी है कि दोनों मिस्रे बराबर हों. इसे वज़न कहा जाता है और बहर हिंदी कविता के छंद के समान हुई जो बड़ी या छोटी कैसी भी हो सकती है। ग़ज़ल की एक विशेषता यह भी है कि हर शेर में बात पूरी हो जानी चाहिए।
उर्दू के बहुत से शायरों ने ग़ज़ल को बहुत समृद्ध किया है लेकिन ग़ालिब का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। दुष्यंत ने ग़ज़ल को हिंदी में कहने की कोशिश की और यह प्रयोग काफ़ी सफल रहा।


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